Tuesday, November 27, 2007

ठंढ

शाम की किरणें
अब सिमट गयी हैं
निमंत्रण दे रही हैं
किसी काली रात को
धुंध में लिपटी हुई
मतवाली रात को

मौसम सर्द है
ठंडी बयार सी
बह रही है
मानों डस रही है
नागिन के जैसे
मजबूर कर रही है
सुध बुध खोने पर
जबकि आग जल रही है
लम्बी लम्बी लपटें
उठ रही हैं
जैसे परिचय दे रही हों
अपनी एकता का

पर हवा का झोंका
जैसे तेज़ी से आता है
और तूफान का
परिदृश्य रच जाता है
कैसे ठहर पाएगी ये आग
इस हवा के सामने
उलझ कर इस बवंडर में
दम तोड़ ही देगी

और निस्सहाय रह जाएँगे
जो बैठे हैं चारों तरफ़
इस इंतज़ार में की अब घटेगी ये ठंढ
और अब बंद हो जायेगा
मौसम का नग्न नृत्य