Thursday, January 21, 2010

शाम - एक तन्हाई

शाम एक तन्हाई है,
रात तो गहरी खाई है।
मन को जितना समझाता हूँ,
उतना ही डूबता जाता हूँ।

कोई है जो मुझे सँभाल ले,
शाम कि इस तन्हाई से।
कोई है जो मुझे निकाल ले,
इस रात की गहरी खाई से

जीवन सूना, जग सूना है,
दर्द की चुभन नहीं मिटती।
राहों में पसरा अँधेरा है,
आशा की किरण नहीं दिखती।

कोई मेरी आँखों को देखे,
आँखों में कई सवाल हैं।
कोई मेरे सपनों को सींचे,
सपनों में कई ख्याल हैं।

ये दुनिया एक दिखावा है,
हर पल ये रंग बदलती है।
रिश्ते नाते सब झूठे हैं,
ये भी तो अंग बदलते हैं।

कोई मुझको जीना सिखलाये,
संबंधों का सच समझाए।
कोई राह मुझे भी दिखलाए,
इस अन्धकार को धुन्धलाये।

क्या समझूं, मेरा गुनाह नहीं,
क्या मानूँ, कोई सलाह नहीं।
मुझे अब कोई परवाह नहीं,
अब मेरे लिए पनाह नहीं।
क्यूँ तड़पूं कि कोई राह नहीं,
क्यूँ तैरूँ जब कोई थाह नहीं।
मुझे जीने कि कोई चाह नहीं,
दर्द तो है पर आह नहीं।