Tuesday, March 25, 2008

Baarish

लाज से यूँ लाल होकर,
छुप गया है फिर वो सूरज,
बादलों की ओट में,
खो रहा है क्यूँ
ना जाने अस्तित्व अपना,
अब नहीं दिख रही
परछाई उसकी,
दिख भी कैसे पाएगी,
जब रंग ही इन बादलों का
है भयावह,
रंग के संग चाल
भी है उसकी बदली,
तब तो हैं ये
काले और मतवाले बादल।

शाम थोडी हो चुकी है,
तब तो था कुछ लाल सा,
वो घमंडी सूरज,
पर लाज से
आँखें मिला सकता न था,
चूर कर डाला
अभिमान उसका,
आज इन मतवाले काले बादलों ने।

दिखला रहा था
कुछ दिनों से
शक्ति अपनी,
जल रहा था
और जलाता जाता था
वो इस धारा को,
ले रहा था वो परीक्षा
धैर्य की, सब प्राणियों के
मानों कर रहा था
हार पर वो विवश
और दिख रहे थे
सब बिल्कुल बेबस

पर आज खुशी भी
स्पष्ट देखि जा सकती है
उन्ही चेहरों पर
उन्ही आंखों में
जहाँ थी विवशता
और बेवसी
क्यूंकि आज
चेहरों पर
उन आंखों में
है एक प्रतीक्षा
की कब गिरेंगी
बारिश की रिमझिम फुहारें
कब मिलेगी उनको राहत
इस जलन से
और कब मान लेगा
हार अपनी वो घमंडी सूरज

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