Tuesday, April 15, 2008

स्तब्ध!

स्तब्ध!

क्रोध से थी लाल उसकी दोनों आंखें
बह रही थी चार बूँदें फिर लहू की
कर रही थी रक्त रंजित उसका अम्बर
देख कर दीवार पे यूँ सर पटकते

रह गया था मैं यूहीं स्तब्ध

निःशब्द!

आह सी थी निकल जाती
देख के वीभत्स दृश्य
देख के फिर उसका निश्चय
खो रही थी
आह भी अस्तित्व अपना

जोश उसका देख के मैं रह गया निःशब्द

अवाक!

जल रही थी उसकी ऑंखें
बह रहे थे अश्रु पश्चाताप के
मग्न था वो अपनी निष्ठा से
सत्य सा था उसकी आंखों मे छुपा

कर दिया इस कटु सत्य ने मुझको अवाक

मुग्ध!

था कभी स्तब्ध मैं
और था कभी निःशब्द
उसको देखा कष्ट सहते
फिर भी सच्चाई पे अड़ते
झूठ से बेवाक लड़ते

आज उसके व्यक्तित्व पे
मैं हो गया हूँ मुग्ध

फिर भी कैसे मैं छुपाऊँ
हूँ कभी निःशब्द भी
और हूँ तनिक स्तब्ध!

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